माँ.....
था गर्भ में सुप्त पड़ा जीवित होने का पूर्वाभास ना था सृजन वेदना से पीड़ित मुख पर एक अनोखा उल्लास था बालपन की स्मृति से स्पष्ट छलकता निरंतर मधुर रस वह माँ की फटकार वह माँ का स्नेह भरा स्पर्श वह सांझ सवेरे की सरल कहानियों में छुपे संस्कार के बीज वह लाड से खिलाना सुनाकर मधुर गीत लड़खड़ाते हुए कदमों को थामे वो हाँथ पिताजी की डांट में भी वो रहती हमारे साथ अत्यंत सरल जीवनयापन अत्यंत सरल मन भगवत भक्ति के वातावरण में व्यतीत हुआ बचपन जीवन की धूप छाँव में सदैव धैर्य रखती वो संपूर्ण परिवार को बांधती एक अदृश्य डोरी वो सभी के साथ रहकर कभी लगती अकेली वो अपनी मिलनसार प्रवृत्ति कृति से दर्शाती वो पाककला में निपुण वह अन्नपूर्णा है क्रोधित हो जाए तो लगती साक्षात दुर्गा है काल के प्रहार से कुछ लुप्त हो गया दमकता हुआ सूरज मानो काली घटा में सुप्त हो गया मैंने स्वयं को आज तक इतना असहाय नहीं पाया जाने विधाता ने माँ की इस पीड़ा का क्या मोल लगाया आज माँ में एक अनंत शून्य विद्यमान है अभी भी घर के किसी कोने में धूल...